• उम्मीदों से उम्मीदें •
- कृष्ण कुणाल की लिखी कविता
• उम्मीदों से उम्मीदें •
यकीन नहीं उमड़ते बादल पे,
ऐसे तुम आते, फिर खो जाते हो।
एक हवा का झोंका जैसे उड़ा कर ले जाए,
गायब तुम पल में अचानक हो जाते हो॥
चंद बूँदा बूंदी की जो आस रहे।
सुखी धरती को जैसे कि प्यास रहे।
उस डगमगाते-टूटते उम्मीद के जैसे,
गायब तुम पल में अचानक हो जाते हो॥
मेरी जिंदगी में आते हो उम्मीद के जैसे।
नई किरनें मुझे दिखाते तुम।
किसी बच्चे को अपनी उँगली थामकर जैसे,
पग-पग चलना सिखाते तुम॥
फिर क्या होता है जो साथ चल नहीं पाते,
हाथ छोड़कर खड़े रह जाते हो।
जब मैं मुड़ूँ तुम्हारी ओर आगे बढ़ने को,
साथ छोड़कर चले जाते हो॥
मैं छूट जाता हूँ पीछे वक़्त में कहीं।
तुम्हारे इंतजार में ही खड़ा शायद।
तभी तो लगता है खुद को खोया खोया सा,
तुम्हें याद करते हुए ही पड़ा शायद॥
क्या है लकीरे मेरे इन हाथों के !
जो तुम इस तरह आते और जाते हो।
हर बार धुंधली यादों को ताजा करते हुए,
मेरे दिल में अपनी जगह बनाते हो॥
बस एक गुजारिश है मेरा तुझसे।
इस बार आना तो कुछ ऐसा कर जाना।
ना टूटूँ, ना बिखरूँ, ना तुम लौटो तभी मैं सम्हलूँ,
मुझे खुद से संभलने के जैसे सँवार कर जाना॥
-AnAlone Krishna.
3rd December, 2018 A.D.
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