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कैसे चढ़ूं मैं उस महफिल के मंच पे
जिसके दर्शक ही अभिनय करने वाले हो।
वो जो होते तो कुछ और हो दिल में और
दुनियां को कुछ और ही दिखाने वाले हो।
मैं शक्लें देखता हूं उनकी तो
मुझे उनके चेहरे दिखावटी लगता है।
जब वो होंठों से खुद को खुश दिखाते हैं
पर आंखों में खुशियों की कमी लगता है।
मैं डरता हूं उन्हें गौर से देखने से,
मैं एक नज़र देखते ही नजरे झुका लेता हूं।
उन्हें पता ना चल जाए कि मैं पढ़ लेता हूं चेहरे,
अंजान बनकर अपनी इस कला को छुपा लेता हूं।
कल भी मैं पढ़ा था छः चेहरा
जो हाल दिल का अपना वो मानेंगे नहीं।
दिखावा इस खूब करते है वो महफ़िल में
जैसे कोई उनके मुखौटे पहचानेंगे ही नहीं।
किसी के आंखों में सब खोने का एहसास था
पर चेहरे में संतुष्टि था कि जो मिला वो भी काफी है।
किसी के आंखों में दर्द था संघर्ष में होने का
पर उनके भाव में हर मिले दर्द की माफी है।
किसी की आँखें तकलीफ में दिखती है
पर मुस्कुराहट ऐसी है कि जैसे कुछ हुआ ही नहीं।
किसी को देख के लगता है कि उसे मजा आ रहा है
जैसे शायद दर्द ने उसे अभी तक छुआ ही नहीं।
किसी की आंखों में उम्मीद है आगे अच्छा होने का
और होंठ उसके मिलने के आस में खुश है।
किसी को अहसास है यह सब अच्छा नहीं है,
पर उसे दिलाए उम्मीद के उत्साह में वो भी खुश है।
पर किसी के आंखों में अहसास है कि क्या हो रहा
पर दिल शायद यकीन करना नहीं चाहता है।
इसलिए शायद नकार देता है खुद का सच्चाई
और चेहरा में हमेशा खुशी ही रहता है।
कैसे चढ़ूं मैं उस महफिल के मंच पे
जिसके दर्शक ही अभिनय करने वाले हो।
वो जो होते तो कुछ और हो दिल में और
दुनियां को कुछ और ही दिखाने वाले हो।
मुझे डर लग रहा है उस मंच पर चढ़ने से
कहीं वो जान ना जाए कि मैं
साहित्य का आईना लिए घूमता हूं।
उस महफ़िल में भी मैं अकेला हो जाऊंगा
जो वो समझ जाएंगे कि मैं
मैं उन्हें, उनके चेहरे, होंठ, आँखें, और हाव-भाव को पढ़ता हूं।
-AnAlone Krishna
23rd March, 2024 A.D.
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